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कद्र-दान

मय से बोझिल रूमानी रात में अफकारे महवश में डूबे तसव्वुर निहाँ सरगोशी किये चांदनी के हम-आगोश माशूक की जुल्फों में उलझे सितारों को चुनते-चुनते रूखे हिजाब से दुपट्टा जो उठा हम तो बा-खुदा परेशाँ हो गए। लफ्ज़ हुए महफूज़, साँसें हुईं गर्म और निगाहों का फलसफा जब होठों पै आके सिमटा हम तो बा-खुदा बे-इख्तियार हो गए। जुनूने मोहब्बत में लिपट के दामने यार से रफ्ता-रफ्ता किए इन्तेजारे सहर जो है हर सबे फुरकत का अंजाम सहर हम तो बा-खुदा कद्र-दान हो गए। -- अवतंस कुमार, २७ अगस्त 2009