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पहाड

पहाडों के पास जाने पर  अपनी क्षुद्रता का अहसास होता है  अपनी क्षण-भंगुरता का अहसास होता है  ये ऊंचे पहाड़ हैं न  न जाने कब से खड़े हैं अपनी जगह पर  और न जाने क्या-क्या नहीं देखा इन्होंने कितने मौसम बदले  कितनी आंधियां और बरसातें आयीं  कितने लम्हे गुज़रे  कितनी बार धरती  अपने अक्ष पर घूम गयी  और कितनी बार चाँद ने  बादलों से अठखेलियाँ खेलीं  पर ये पहाड़ आज भी वहीं खड़े हैं  चुप-चाप, गुमसुम, शांत  ये बेजान से दिखाने वाले पत्थर  क्या-क्या नहीं बोलते ये ऊंचे पहाड़ अपने दामन में  न जाने कितने राज़ छिपाये रखे हैं  अपनी मोटी परतों में  न जाने कितने रहस्य कितनी कहानियाँ  कोई इनसे पूछे तो सही!