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सपने ********   सपने तो बस सपने होते हैं। सपने कभी मरते नहीं खुली आँखों के सपने और नींद के सपने खिड़की से चाँद तक छलांगों के सपने मुट्ठी में बादलों को खींचने के सपने। सपनों का क़ानून नहीं, सपनों का दारोगा नहीं सपनों की नैया नहीं, सपनों का साहिल नहीं सपनों की सरहद नही, सपनों का वीज़ा भी नही। सपने उम्मीदों की आंच में पिघल कर साँचों में ढलते हैं सपने नया रूप धरते हैं, नए लिबास पहनते हैं सपने तो बस सपने होते हैं सपने कभी मरते नहीं।   - अवतंस

पतझड़

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स्टर्नस वुड्ज़ की तो अब समाँ ही बदल चुकी है कुछ। हम यहाँ अक्सर सैर को आया करते हैं। दिन छोटे होने लगे हैं ठंडी हवा में दंश है, तीखापन।  ऊँचे ऊँचे पेड़ों की हरियाली और शामियानों जैसी छतरी   कब की जा चुकी है। रंग बिरंगे पत्तों की मोटी परत पगडंडियों पर जमा पड़ी है बबूल, चिनार और न जाने क्या क्या। बाईं ओर वाले झुरमुट में देवदार की सुइयों की मुलायम मखमली दरी और छोटे-बड़े रंग बिरंगे  कुकुरमुत्तों की पट्टी। पेड़ों से गिरे पत्ते अधिकांश सूखे, कुछ हरे पाँव टखनों तक धँस जाते है पत्तों के अम्बार में। और सूखे पत्तों की चरमराहट चमरौंधे जूतों जैसी चरर मरर चर्र मर्र चरर मरर चर्र मर्र। पेड़ों की झुरमुट के पीछे दूर  धुंधली मटमैली पृष्टभूमि में बादलों पर छिटकी लालिमा लिए सूरज चला जा राहा अस्ताचल को शनैः शनैः। पीछे से हवा का एक झोंका आया और पगडंडियों के कुछ सूखे पत्ते भी संग हो लिए। ~ अवतंस

असमंजस

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बड़ी असमंजस में हूँ आज कि आख़िर सुनूँ तो किसकी सुनूँ एक तरफ़ आसमान के विस्तार में  पेड़ों में अँटका कृष्णपक्षी प्रतिपदा का चाँद है दूसरी तरफ़ मदिरालय की रुनझुन और हाला से भरा प्याला बित्ते भर दूर मेज़ पर अपनी केहुनियों को टिकाए और अपनी दोनों हथेलियों में अपने बोझिल से चेहरे को थामे तुम वक्त ठहर सा गया था घड़ी भर को मैं जी सा गया था घड़ी भर को।  (०१, वैशाख, कृष्ण पक्ष प्रतिपदा, विक्रम सम्वत् २०७७; अप्रैल ८, २०२०)

स्वामिए शरणम अय्यप्पा

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सदियों पहले आए थे लुटेरे  वहशी, दरिंदे आँखों में हैवानियत लिए  और हाथों में तलवार एक पुस्तक और एक रसूल के नुमाइंदे।  हज़ारों मंदिरें तोड़ीं  रौंदा हमारे देवी-देवताओं को  अपने पैरों तले। गजवा-ए-हिंद नारा था, इरादा था काफ़िरों की धरती को ‘पाक’ बनाने का। कल भी लुटेरे आए थे  स्वामी अय्यप्पा का ब्रह्मचर्य तोड़ने उनके मंदिर को नापाक करने  हमारे मान-स्वाभिमान का गला घोंटने  हमारी भक्ति और आस्था को अपने पैरों तले कुचलने एक पुस्तक और एक रसूल के नुमाइंदे। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था  कि सदियों पहले   उनके परचम का रंग हरा था और कल रक्तिम लाल। ~अवतंस

पहाड

पहाडों के पास जाने पर  अपनी क्षुद्रता का अहसास होता है  अपनी क्षण-भंगुरता का अहसास होता है  ये ऊंचे पहाड़ हैं न  न जाने कब से खड़े हैं अपनी जगह पर  और न जाने क्या-क्या नहीं देखा इन्होंने कितने मौसम बदले  कितनी आंधियां और बरसातें आयीं  कितने लम्हे गुज़रे  कितनी बार धरती  अपने अक्ष पर घूम गयी  और कितनी बार चाँद ने  बादलों से अठखेलियाँ खेलीं  पर ये पहाड़ आज भी वहीं खड़े हैं  चुप-चाप, गुमसुम, शांत  ये बेजान से दिखाने वाले पत्थर  क्या-क्या नहीं बोलते ये ऊंचे पहाड़ अपने दामन में  न जाने कितने राज़ छिपाये रखे हैं  अपनी मोटी परतों में  न जाने कितने रहस्य कितनी कहानियाँ  कोई इनसे पूछे तो सही!

पत्थर

पत्थर लोग कहते हैं पत्थरों पर निशान बनाना मुशलिक है पर मैंने पत्थरों पर लकीरें खिंची देखी हैं प्रकृति की कलाकारी भी देखी है पत्थरों पर। एक सधे हुए संगतराश की तरह लम्हा-दर-लम्हा, चपेट-दर-चपेट, रेत-दर-रेत सदियों की कशमकम और जद्दोजहद के बाद जो मनभावन मंज़र हवाओं ने तराशे हैं पत्थरों पर उनको देखा है मैंने। उसी संगतराश को पानी की लहरों और थपेड़ों से अनगिनत बुतों को तराशते भी देखा है। बाबा भोले की प्रतिमा से लेकर समुद्री पायरट और शाही महल से लेकर शांति स्तूपों तक सबकी छवियों को गढ़ते भी देखा है। धातुओं की परतों से सीपते पानी से सनी हुई रंग-बिरंगियी कूचियों से काढ़ी हुई मनभावन सतरंगी तस्वीरें या फिर क़ुदरती धागों की महीन कशीदाकारी भी उन्हीं पत्थरों पर देखी है। पत्थर सिर्फ़ मूढ़ पत्थर नहीं होते पत्थरों में भी जान होती है। एक कुदरती कैन्वस है पत्थर माज़ी का पन्ना और कहानियों की किताब भी। हमारे अतीत का आइना भी है पत्थर और सत्यम शिवम् सुंदरम भी। मैंने पत्थरों पर लकीरें खिंची देखी हैं और देखी है प्रकृति की कलाकारी भी पत्थरों पर। (Inspired by the rocks of the Pict

अमरनाथ यात्रा

अमरनाथ यात्रा ------------------------ सावन का पहला-पहला ही दिन काली अँधियारी रात में  काले यमदूत समान बादल आए उमड़-घुमड़ के शंखनाद भी था, गर्जना भी पूरा पहाड़ थर्रा उठा बिजुरी सी भी चमकी और घाटी में दूर-दूर तक फैल गयी पर अबकी सावन में  पानी की बूँदो के बदले बारिश हुई बंदूक़ों के गोलियों की राहत के बदले हताशा, अफ़रा-तफ़री बम-भोले की गूँजों के बदले क्रंदन। कईयों के घरों में चूल्हा नहीं जलेगा आज कईयों के हाथों की मेंहदी उतर गयी कलाइयों की चूड़ियाँ, पैरों का अलता भी किसी को माँ नहीं मिलेगी अब किसी को उसकी बीवी, बहू, और बेटी। पर क़ाफ़िला कभी रुकता नहीं यात्रा चिर-अनंत है अंत के बाद पुनश्च इस बात को बाबा भोलेनाथ से बेहतर कौन जान या बता सकता है? ~अवतंस July 11, 2017