आमची मुम्बई !

मुम्बई की घटनाओं ने हमारी मानसिकता पर एक गहरा घाव किया है। शरीर के ज़ख्म तो समय के साथ भर जाएंगे पर दिल पर लगी चोट को भरने में, अगर सदियों नहीं तो, बरसों ज़रूर लग जाएंगे। निर्दोषों की जान लेने वालों की कोई जाति या धर्म नहीं है। वे मनुष्य के भेस में खूनी दरिंदों के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं। उनकी जाति नपुंसकों की है और उनका धर्म वहशियों का। हिंसा किसी मर्ज़ की दवा नहीं है न ही किसी प्रश्न का उत्तर -- चाहे वो धार्मिक/आध्यात्मिक हो या सामाजिक/राजनैतिक।

लेकिन जब तक भोले-भले लोगों को बहसाकर खूनी दरिंदों में बदलने वालों के ख़िलाफ़ एक खुली जंग का ऐलान न किया जाएगा, मुम्बई जैसी घटनाओं का कोई अंत मुझे नज़र नहीं दिखाई देता हैं। इस वहाशिपने को सर झुका कर सहने, नज़र अन्दाज़ कराने, और बढ़ावा देने वाला समाज भी इस कत्ले-आम का उतना ही उत्तरदायी हैं जितना ये कातिल -- खास तौर पर तथाकथित प्रगतिशील वामपपंथी इन्टेलिजेन्सिया जो इस खुले आम दरिंदगी को भांति-भाँती नामों और व्याख्याओं से समझाने की कोशिश कर रहे हैं.

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