पुखराज

गुलज़ार साहब की शायरी का कायल मैं बचपन से रहा हूँ. पर जब मेरी पिछली भारत यात्रा के दौरान उनकी ‘पुखराज’, हिन्दी, रूपा एंड कंपनी, २००९ तृतीय संस्करण, की प्रति मेरे हाथ लगी तो मेरी खुशी का कोइ ठिकाना न रहा. दिल्ली की कुहासों भरी सर्द सुबहों और दिल्ली से शिकागो की सोलह घंटे की लंबी, उबाऊ, और तल्खी भरी अमेरिकन एयरलाइन्स की उड़ान के बीच जो लमहे पुखराज की आगोश में गुजरे, वो बड़े खुशनुमा और तसल्ली भरे साबित हुए.

गुलज़ार साहब के फिल्मी गीतों, संवादों, पटकथा, और उनकी बुलंद, शायराना आवाज़ –जिसका कोई सानी नहीं है, से हम सब एक अरसे से वाकिफ रहे हैं. आप सब निम्नलिखित रचना, वादा (पृष्ठ ६७) को आसानी से पहचान लेंगे

मुझसे इक नज़्म का वादा है, मिलेगी मुझको
डूबती रातों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द-सा चेहरा लिए चाँद उफक पर पहुंचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
न अन्धेरा, न उजाला हो, न ये रात न दिन

जिस्म जब खत्म हो और रूह को जब साँस आये
मुझसे इक नज़्म का वादा है, मिलेगी मुझको

पर पुखराज में उनकी एक अनोखी ही छवि सामने आती है. उनकी शायरी गहरी होते हुए भी हर किसी के दिल को छूती है. उनकी भाषा सटीक और सरल है. उनकी दार्शनिकता, उनका बुज़ुर्गपना, उनका आध्यात्म, और उनकी सान्सारिकता उनकी लेखनी में साफ झलकती है. नोश फरमाएं:

गिरहें (पृष्ठ ६)
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोइ तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बनाने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे!

पुखराज के गुज़ार साहब थके, और हताश भी नज़र आते हैं. उनकी शायरी में तल्खी और आत्मसमर्पण का भी पुट है. पृष्ठ १२३ की रचना ‘शिकायत’ पर गौर फरमाईये

सांस की कंपकंपी नहीं जाती
जख्म भरते नहीं हैं आँखों के
दर्द के एक रेशे को
खींच कर यूं उधेड़ता है दिल
जिस्म की एडियों से चोटी तक
तार-सा इक निकलता जाता है
चीख भींचे हुए दांतों में

तुमने भेजा तो है सहेली को
जिस्म के जख्म देख जायेगी
रूह का दर्द कौन देखेगा?

लगता है आज़ादी के बाद विभाजन की त्रासदी की जख्म गुलज़ार साहेब की जेहन में अभी भी ताज़ा है. और हो भी क्यों नहीं. कितनों की जानें गयीं, कितने परिवार बिखरे और बर्बाद हुए, कितने अपाहिज और अपन्गु हुए, और दिलों के बीच जो दरार पड़ी उसका कोई लेई अभी तक नहीं बन पाया. देश के बंटवारे और साम्प्रदायिक दंगों का जिक्र बार-बार होता है पुखराज में. भमीरी (पृष्ठ ११) के एक अंश में जुलजार फरमाते हैं

हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
माँ ने जितने जेवर थे, सब पहन लिए थे
बाँध लिए थे ...
छोटी मुझसे ..... छः सालों की
दूध पीला के, खूब खिला के, साथ लिया था
मैंने अपनी एक “भमीरी” और इक “लाटू”
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गाँव छोड़ कर भागे थे
रिफ्यूजी थे ....

पर पुखराज की एक बात जो मेरे दिल-ओ-दिमाग को झझकोर गई वो पुखराज की प्रतावना – अर्ज किया है – में दर्ज है. गुलज़ार साहब लिखते हैं -- “नज्मों की ज़बान उर्दू है. लिखाई हिन्दी. उर्दू अगर दोनों लिपियों में लिखी जाए तो क्या हर्ज है?”
बिलकुल सही फरमाया, गुलज़ार साहेब! अगर इन जुबानों के बीच से लिपी हटा दें तो हिंदी और उर्दू में फर्क करना मुश्किल हो जायेगा. साहित्यकार, भाषा वैज्ञानिक, और आम जनता जो बात बरसों से कहते आ रहे हैं, वही बात अगर सियासत के रहनुमा भी मानने लगा जाएँ तो ये हंगामा क्योंकर बरपेगा

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